सोच !!!!!!!!!!!!!!!!!

एक बार मै कुछ  सोच रहा था तभी यह  ख्याल आया की हम सोचते क्यो  है? उससे बड़ा सवाल हम क्या सोचते है? क्या हमें सोचना चाहिए? क्यों सोचना चाहिए ? क्या हम जो सोच रहे है वो सही सोच रहे है ? क्या हम मजे के लिए सोच रहे है या फिर चिंतन के लिए सोच रहे ? क्या हमारा सोचना जायज है या नहीं ? इत्यादि।

आईये  हम इसके बारे कुछ सोचते है और कुछ विचार करते है। सोचने की शुरुवात  होती कैसे  है? इसके दो मुख्य कारण हो सकते है। या तो आप अपने जीवन में बहुत ही संतृप्त है या फिर अतृप्त है।  किसी भी वजह से। कुछ और भी तरह के प्राणी  है, जो इन सबसे अलग है, फिर भी सोचते रहते है।  जैसे हमारे वैज्ञानिक। पर हम उनकी बात नहीं करने जा रहे है। सबसे पहली बात यह की अगर आप सोचते ज्यादा है तो डरने की बात नहीं है।  बात है समझने की। अगर आप जीवन  में संतृप्त है तो आपको नहीं लगेगा की हमारा सोचना ख़राब है।  पर अगर अतृप्त है तो शायद  कभी कोई डर महसूस किया होगा। अब हमको एक बिन्दु मिल गया चर्चा करने के लिए।  चलिए हम उसको समझने की कोशिश करते है।  शुरुवात बचपन से करते है।  बचपन में बालक जब से समझना शुरू करता है, तब से सोचना शुरू करता है। और आजकल के बच्चे जैसा मैंने अपनी बेटी को देखा है।  जैसे ही उससे खाना खाने की बात की जाती है, वैसे ही वो सोचना शुरू करती है कि  कैसे आज खाना खाने से बचा जया। यहाँ उसकी संतृप्ता  या अतृप्ता नहीं है।  पर सोचने की शुरुवात यहीं से होती है। इसके बाद जैसे – जैसे बच्चे बड़े होते है।  फिर अपने खिलौने के बारे में या फिर आभासी गुड़िया गुड्डे या फिर सुपरमैन या फिर ऐसे कुछ भी आभासी चीजो के बारे में सोचना शुरू करते है।  और एक समय के बाद जब कुछ बड़े होते है और बाहरी दुनिया के संपर्क में आते है।  तब उनके अंदर अतृप्ता शुरू होती है।  सोनू के पास रिमोट वाला कार है और मेरे पास नहीं है।  चिंकी के पास बार्बी वाली गुड़िया है और मेरे पास नहीं है।  फिर और आगे अरे यार तेरे पास तो गियर वाली साइकिल है पापा मुझे दिलाते नही है।  तेरे पापा कितने अच्छे है।  अरे वाह मॉचो बाइक कब लिया।  मेरे डैडी ने दिलाया है इत्यादि। इससे बच्चे ही नहीं माँ बाप भी अतृप्त होते है।  और फिर सोचना शुरू करते है।  कब करते है उन्हें पता भी नहीं चलता। यहाँ मैं एक आम ‘मिडिल’ आदमी की बात कर रहा हूँ। मिडिल आदमी कुछ ज्यादा ही सोचता है। बाहर खाना खाना है की नहीं ,होटल में खाना या फिर बाहर रेड़ी पर , ऑफिस बस से जाऊ या फिर बाइक से , इसबार दिवाली में नए कपडे खरीदू की नहीं , पडोसी को बुलाऊ की नहीं  कुछ भी चाहे मतलब हो  या फिर नहीं लेकिन सोचना है।  सोचना तो जरूरी और मजबूरी दोनो है। कुछ काम दिल से होता कुछ काम दिमाक से होता है। इसलिए सोचना तो चाहिए ही।  ये सोच जैसी चीज तो हम मनुष्यो को वरदान प्राप्त है।  तो इसका भरपूर उपयोग करना चाहिए। अब एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते की क्या, कब ,क्यों  इत्यादि सोचना चहिये। मान लीजिये की आप नौकरी करने वाले कर्मचारी है।  आप शादी शुदा है।  और आप के दो बच्चे है।  आपकी पत्नी घर पर रहकर बच्चो और घर का ख्याल रखती है। और आपकी नौकरी एक बड़े महानगर में है।  यहाँ पर आप एक किराये के मकान  में रहते है। आपका एक बच्चा स्कूल में पड़ता है और एक अभी जाने की तैयारी  में है। अभी आपके परिवार के बाकि सदस्यों को अलग रखते है। अब  परिस्थितियों को समझने की कोशिश करते है। आप सुबह  ६ बजे उठते है।  मन नहीं होता फिर भी यह सोचकर उठते है कि  नहाना है ऑफिस की फाइल रखना है। ट्रैफिक बड़ जायेगा तो ऑफिस को लेट हो जायेगे इत्यादि। जैसे ही टॉयलेट में जाते है फिर सोचना शुरू। आज ऑफिस का ये काम करना है। आज शर्माजी  से लिफ्ट  मिल जाय तो मजा आ जाय। फिर जैसे ही ऑफिस के लिए तैयार हो रहे होते है, उसी समय आपकी पत्नी बोलती  है की आज सोनू की फीस जमा करनी है।  आपने रिया के लिए कुछ सोचा। प्ले स्कूल भेजना है की सीधे स्कूल में ही भेजेगे। और हाँ घर में बारे में क्या सोचा। ननद की शादी में क्या देना है ?  क्या सोच रखा है? मकान मालिक आया था, किराया बढ़ाने को बोल रहा था। क्या सोचा आपने इसी घर में रहना है कि बदलेंगे ? ये सब सोचते-सोचते आप ऑफिस चले जाते है। वहां जाते ही कुछ और ही शुरू हो जाता है। इसी बीच आपकी पत्नी भी रात को ये सोचते- सोचते सोती है की कल सुबह  जल्दी उठना है। सोनू का होम वर्क करना है? नास्ता क्या बनाना  है ? सोनू और पति को टिफ़िन में क्या देना है? कामवाली कल आएगी की नहीं? जल्दी से सबको भेज दू रिया के उठाने से पहले। पानी टब में भर लू नहीं तो चला जायेगा। बहुत कुछ जिसका अंत नहीं है। इसका परिणाम क्या होता है। दोनों पति पत्नी को टेंशन,  फिर उसका दुष्प्रभाव दोनों पर आता है और अंत में बच्चो पर। लेकिन बिना  सोचे तो चलता भी नहीं है।  फिर क्या करे ? सोचो। पर थोड़ा समय को महत्व  देकर। एक बार कुछ समय  आप निकालिए और अपने सारे  समस्याओ को एक जगह नोट कीजिये। आप दोनों पति पत्नी अलग-अलग फिर उसपर थोड़ा सोचिये। सोचना ये है की कैसे हम इसको हल्का कर  सकते है। उसको भी बिंदू दर बिंदू  अंकित कर लीजिये। फिर आप दोनों साथ बैठिये और अपने हर समस्या का समाधान बिन्दु दर बिन्दु अपने सहभागी से पूछिए और उसको भी अंकित कीजिए। फिर अपने किसी ऐसे खास मित्र या घर के सदयस्य से फिर अपने बिन्दुओं को विचार कीजिये। उनको भी अंकित कीजिये। आप एक से अधिक पर २-३ से ज्यादा नहीं, व्यक्तियों से नहीं। ये काम दोनो को करना है। अब फिर सोचने का समय आता है। अब सोचिये कि क्या समाधान हो सकता है।  उनको भी चिनिह्त कीजिये। और अंत में दोनों  बैठकर उसपर विचार कर सोचिये। मुझे विस्वास है कि  इसके बाद। आपको उतना नहीं सोचना पड़ेगा जितना पहले। और आप की सोच में बदलाव भी आएगा। एक अच्छी सोच आएगी जो थोड़ा चिंता  को भी कम करेगी। सोच के साथ चिंतन करके देखिये। मजा आएगा। यह कोई बड़ी चीज नहीं है एक बार शुरुवात में थोड़ा मन को कष्ट  होगा।पर आपके अभी के कष्ट को काफी काम कर देगा।अब ज्यादा सोचिये मत। कर डालिये।

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