ऋचा रोते-रोते माँ के पास आई "माँ.…माँ " क्या हुआ माँ ने पूछा। "रिया ने मेरी गुड़िया का पैर तोड़ दिया और किचन सेट भी बिगाड़ दिया। " कोई बात नहीं हम नयी गुड़िया लायेगे और एक अच्छा सा कीचन सेट भी, ऋचा को नहीं खेलने देंगे। केवल मेरी रानी गुड़िया खेलेगी। अच्छा अपने किचेन में मेरी बेटी क्या बनाएगी मेरे लिए। " फिर क्या माँ के इस प्यार ने ऋचा का सारा गम भूला दिया।
"सुनो आज पता है सोनिया, रिम्मी के किटी में आई थी। उसने वही वाला हीरे का हार पहना था। " "पर किटी तो पिछले सप्ताह में थी न, आज कैसे याद आया" रमेश ने पूछा। नमिता ने बोला ऐसे ही। रमेश ने बोला कोई बात नहीं आपकी किटी में आप उससे अच्छा हार पहनने वाली है। जबकि रमेश और नमिता दोनों को पता था कि वो ले नहीं सकते है। पर आपसे में बाते साझा करने से नमिता थोड़ा हलका महसूस कर रही थी।
रमेश आज जैसे ही ऑफिस से घर लौटा चेहरा थोड़ा हलका लग रहा था। इसको नमिता ने भाप लिया था। वैसे इस चीज को नमिता पिछले तीन दिनों से नोटिस कर रही थी। पर ऑफिस से आने में ही रमेश को काफी देर हो जाता था और उसके बाद ऋचा के साथ खेलने में काफी देर हो जाता था तो नमिता पूछ नहीं पाती थी। जैसे ही शनिवार आया सुबह होते ही चाय पर नमिता ने पूछ ही लिया। रमेश ने फिर अपनी ऑफिस की सारी भड़ास निकल दिया। रमेश के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। फिर रमेश ने नमिता से उसकी और अपनी माँ से बहस के बारे में चर्चा की। दोनों को बहुत अच्छ अलग रहा था।
ये तो कहानी हो गयी एक छोटे से परिवार की। अगर हम पुराणो में जाय तो सुग्रीव की पत्नी को बलि उठा ले गया था। ये सुग्रीव की ब्यथा थी। उर्मिला की व्यथा उनका पति जो अपने भाई के साथ वनवास चला गया। धृतराष्ट्र की व्यथा की वो अँधा पैदा हुआ, जिससे वो राजा नहीं बन सकता था। इन सबकी यदि छोड़े तो भगवन की व्यथा भी कम नहीं है। सारी सृष्टि की व्यथा जो है उनके पास। गरीब की व्यथा दो समय की रोटी और ठंडी के महीने में रात कहाँ काटू। अमीर की व्यथा पैसा, समय और आपस का अपनो से रिश्ता है। इन दोनों के पास इसके समाधान का अच्छा और एक ही इलाज भी है।
पर इन सबके बीच हम उस मध्यम वर्गीय लोगो को भूल जाते है। जिनके पास व्यथा को हल्का करने का अच्छा इलाज होता है। जैसा हमने ऊपर पढ़ा वो तो एक आदर्श पति पत्नी की कहानी है। पर वास्तविक जीवन में वह व्यथा के साथ जीने को मजबूर होता है। क्योकि उसको इसमें जीते -जीते मजा आने लगता है। अपनी छोटी - छोटी खुशियो से रिस्ता छोड़कर व्यथा से नाता जोड़ लेता है। और इसमें इतना रम जाता है कि एक समय के बाद उसको ऐसा लगता है कि अगर उसके जीवन में कोई व्यथा नहीं है तो उसका जीना बेकार है। बेचारा मर भी नहीं पता क्योंकि उसको पता है अगर मर गया तो उसका व्यथा से नाता टूट जायेगा। और मजे की बात या है की अपनी यह व्यथा लेकर भगवान के पास जाता है और उन्हें भी व्यथित कर देता है।
आईये देखते है इनके पास किस तरह की व्यथाएं होती है मजा आएगा और अपनी भी थोड़ी व्यथा हलकी हो जाएगी। हम लोगो के पास अपनी व्यथा को हल्का करने का यह एक अच्छा जुगाड़ है। श्याम की शहर की मुख्य बाजार में किराने की दुकान है। दुकान की बिक्री आजकल कम हो गयी है। नुक्क्ड़ पर जब से रघु ने अपनी दुकान को थोड़ा मोर्डर्न किया है तब से ग्राहक रघु की दुकान से आगे बढ़ना कम कर दिया है। श्याम को ये बदलाव अंदर ही अंदर खाए जा रही थी। जबकि श्याम के पास बड़ी जगह है और पुस्तैनी पैसा भी है। कमी है तो सिर्फ सोच की। रघु भी कम व्यथित नहीं है। उसको लगता है कि काश मेरे पास श्याम जैसी जगह होती। जबकि वहां से सिर्फ १ किलोमीटर की दूरी पर बड़ी जगह मिल रही है। लेकिन वहां श्याम की व्यथा देखने को नहीं मिलेगी।
रमेश के पास छोटी कार है पर जबसे नितेश ने बड़ी सेडान खरीदी है तब से रमेश को रात में नींद आनी बंद हो गयी है। नितेश नौकरी में २ साल जूनियर और बड़ी कार !. नितेश की व्यथा भी कम नहीं है। चचेरे भाई से स्पर्धा में बड़ी कार तो ले ली पर उसकी ई मा यी,रात की नीद और दिन का चैन लूटी हुयी है। पेट्रोल और पार्किंग की समस्या अलग से। नमिता और ज्योति भी आपस में ननद ,देवरानियो और जेठानियों की व्यथायो को तो, बच्चो को स्कूल भेजकर थोड़ा कम तो कर लेती है। पर आपस को लेकर जो व्यथाएं है उनका क्या। पतियों के पास समय नहीं है। बेचारियो को अकेले ही झेलना पड़ रहा है। बच्चे भी अपने वीडियो गेम और बार्बी डॉल को लेकर कम व्यथित नहीं है। रमेश को ऑफिस में प्रमोशन नहीं मिला जबकि सुरेश को प्रमोशन मिल गया। वो बात अलग है कि सुरेश, रमेश से ६ महीने सीनियर है और पिछले २ साल से अच्छे काम के लिए अवार्ड मिला है। पर इससे थोड़ी न कुछ होता रमेश और सुरेश साथ-साथ बैठते है,ये गलत हुआ। ये रमेश की सोच है। व्यथित होने के लिए मिल गया मसाला। पर सुरेश भी कम व्यथित नहीं है "सिर्फ प्रमोशन से क्या होता है। रमेश की सैलरी में अच्छी बढ़ोत्तरी हुयी है।" इतना ही सुरेश को व्यथित करने के लिए काफी है।
ज्योति और उसकी सास रामवती में हमेशा थोड़ी बहुत अन-बन हो जाती है। ज्योति हमेशा इस बात से व्यथित रहती है कि नितेश हमेशा सुबह की चाय हमेशा अपनी माँ के साथ क्यों पीता है। जबकि उस समय ज्योति घर और बच्चो के काम व्यस्त रहती है। माँ की व्यथा यह कि शाम को ऑफिस से घर आने के बाद वो ज्योति को ज्यादा समय क्यों देता है। ज्योति लौकी के सब्जी में राई क्यों नहीं डालती। कुछ भी दोनों सास बहू कुछ न कुछ खोज ही लेती है व्यथित होने के लिए। जबकि एक को अच्छी चित्रकारी आती है और दूसरे को पढ़ने का शौक है। व्यथा के शौक में जो मजा है इसमे कहाँ। नमिता इसलिए व्यथित रहती है की ज्योति की सास उसके साथ रहती है तो उसको अपने लिए खूब समय मिल जाता है। और एक बेचारी नमिता जिसकी सास उसके पास आने को तैयार नहीं। नमिता की सास इसलिए व्यथित रहती है कि एक तो नमिता दहेज़ नहीं लेकर आई और ऊपर से मेरे बेटे और पोते-पोतियों को पास नही लेकर आती वहां शहर में ऐश कर रही है।पत्नी की यह व्यथा की पति उससे प्यार नहीं करता और पति की यह व्यथा की पत्नी के पास उसको उसको समझने के लिए समय नहीं। एक व्यापारी की यह व्यथा की वो नौकरी वालो के जैसा अपने परिवार को समय नहीं दे पाता। और नौकरी वाले की यह व्यथा की उसके पास व्यापारी जितना पैसा नहीं। डॉक्टर की व्यथा की उसके पास मरीज नहीं है। मरीज की व्यथा की डॉक्टर अच्छा नहीं है। वकील की व्यथा उसके पास अच्छा केस नहीं है। याचिक की व्यथा की वकील अच्छा नहीं है। अध्यापक की व्यथा की स्कूल और बच्चे अच्छे नहीं है। माँ-बाप और बच्चो की व्यथा की अध्यापक अच्छा नहीं है। नेता की व्यथा कि उसकी पार्टी की सरकार नहीं है। जबकि नेताजी बड़े मुश्किल से चुनाव जीते है। मंत्री की व्यथा कि उसको अच्छा मंत्रालय नहीं मिला। जबकि मंत्री बनने से पहले उनको भी नहीं पता था की मंत्री बनेगे। एक कलाकार की व्यथा कि उसकी कला के लिए उसको अच्छा पैसा नहीं मिल रहा, जबकि पहले कलाकार को कोई जनता नहीं था। कला की परख करने वालो की व्यथा की कोई अच्छा कलाकार नहीं। जबकि पारखी को कला का ज्ञान ही नहीं। संत की व्यथा की अच्छे भक्त नहीं,जबकि कुछ समय पहले लोग संत से बात करने से कतराते थे। भक्त की व्यथा की उसका मार्गदर्शक करने वाला गुरु नहीं, जबकि वो अपना गुरु खुद ही है। इन्ही व्यथायो के चक्कर में लोग संतो के पास जाते है औए संत गदगद होकर रामपाल और आशाराम बन जाता है। चाहे देश का कैबिनेट शिक्षा मंत्री हो या रोज की मजदूरी करने वाला अनपढ़ मजदूर। सभी पहले व्यथा पालते है फिर भागते है या तो संत के पास या फिर अपने - अपने इष्ट देवो के पास उनको व्यथित करने के लिए। "कस्तूरी कुण्डल बसै " इसका ज्ञान ही नहीं है हमें। वास्तव में इसका ज्ञान हम सबको है। पर व्यथा रस का जो आनंद है और उससे बड़ा आनंद अपनी व्यथा से दूसरो व्यथित करने में वो किसी चीज में नहीं। ये भी बात सहीं है की अगर सब संत कबीर और बुद्ध बन गए तो फिर तो चल चुकी ये दुनिया। फिर तो सब भजन गायेगे खाएंगे क्या। सोच कर देखो। कुछ लोग ये भी बोल सकते है कि अपने वैज्ञानिक,अर्थशास्त्री,चित्रकार,लेखक इत्यादि ये सब भी तो बन सकते है,ये लोग भी तो व्यथा से परे है। पर मैं कहता हूँ पूछ कर देखो इनसे, अगर इनके पास व्यथा न होती तो इनका यह गुण लोगो को पता ही नहीं चल पाता। छोडो अगर हम मान भी ले कि ये व्यथित नहीं है, तो क्या इन्ही चन्द लोगो से दुनिया चल जाएगी। इसलिए व्यथा को आने दो पर उसके रस से रसित मत हो। दूसरो को व्यथित किये बिना हम इस व्यथा से कैसे बाहर आ सकते है वो काम करो। हाँ किसी को बड़े दिल से व्यथित करने की इच्छा हो रही हो तो चले जाओ किसी एकांत में और अपने इष्टदेव को व्यथित करो, जम के करो। इसके बाद भी अगर कुछ गले में फसी रह जाय तो अपने साथी या आपको जो लगता है कि आपको समझता है उससे बात करो। पर ध्यान रखना चाहिए कि अगर आपकी व्यथा को हलका करते -करते आपका साथी व्यथित हो जाय तो आप उसको हलका करेंगे। दुनिया गोल जो ठहरी। साथी कोई भी सकता है माँ,पिता ,पत्नी , पति ,पुत्र,पुत्री ,मित्र और साथ में काम करने वाले आदि। व्यथा जीवन का एक रस है, जो हम मनुष्यो ने आनंद लेने की लिए इसकी उत्पत्ति की है। कोशिश यही हो की यह रस तक ही सिमित रहे। चाय की चुसकी की तरह इसका रसपान होना चाहिए। सुबह की चाय का स्वाद दोपहर के चाय के समय शायद ही याद रहती है।