अरे ६ बज गए। ये अलार्म भी न। लीलावती अरे!!! यार तुमने उठाया क्यों नहीं। कल बहुत थके हुए थे इसलिए सोचा थोड़ा सो लेने दूँ। अच्छा जल्दी तैयार होकर आओ तब तक मैं रिया को तैयार कराती हूँ। थोड़ी देर के बाद लीलावती बाथरूम के दरवाजे के बाहर छेदीलाल को आवाज देती है "अरे सुनो मैं रिया को स्कूल बस में बैठाकर आती हूँ। आपका ड्रेस बेड पर रखा है। " छेदीलाल क्रीम, पाउडर और टाई लगाकर तैयार होते है। तबतक लीलावती ने नाश्ता भी डाइनिंग टेबल पर लगा दिया। आवाज आती है "अच्छा अब बस भी करो तैयार ऐसे हो रहे है जैसे फैशन परेड में जाना है। कोई नयी मैडम आई है क्या ऑफिस में। मुझे तो कभी-कभी शक होता है........ I" अरे यार फिर वही ब्रेड जैम पक गया हूँ। ये नहीं देख रहे हो पेट मटके जैसा निकल रहा है। खाना है की नहीं। लीलावती का जबाब आया। छेदीलाल ने चुपचाप नाश्ता करके अपना लंच बॉक्स हाथ में लिया और तैयार हो गए आजके ब्लॉग का हीरो बनने। यहाँ से शुरू होता है रोज का रोमांच जो शायद किसी भी बड़े जैसे देश में मिलना बहुत ही मुश्किल है। छेदीलाल सोचते हुए निचे सीढ़ियों से उतर रहे थे कि आज तोंडारे नहीं दिखाना चाहिए। पर जो सोचते है वो होता कहाँ है। "नमस्कार छेदीलाल जी, चल दिए ऑफिस।" मुँह में ब्रश और हाथ में पानी से भरा मग, लुंगी और बनियान पहने तोंडारे ने छेदीलाल को रोका। छेदीलाल ने झूठी मुस्कान के नमस्कार किया और बिना कुछ बोले निचे सीढ़ियों से उतर गए। मन ही मन सोचा आज फिर दिन गुड गोबर हो गया। जैसे ही बाहर गली में आये तो देखा सीवर में से पानी सड़क पर आ रहा है। बचते बचाते जैसे ही आगे बड़े तभी ऊपर से सावित्री भाभी ने कूड़े की पोलिथिन फेंकी। पहले से सतर्क छेदीलाल ने डाइव लिया और आगे बढ गए। "बाल-बाल बचे, अच्छा हुआ मोदी जी ने स्वच्छता अभियान चलाया तो सावित्री भाभी ने पॉलिथीन बांधकर कूड़ा फेकने लगी नहीं तो अब इस उम्र में बड़ी डाइव मारना बहुत मुश्किल है। " छेदीलाल ऊपर देखते हुए आगे निकल गए। जैसे ही आगे बड़े ही थे की सामने समाचार पत्र वाले की सायकिल से भिडते-भिडते बचे। उसको देखते ही बोले तुझसे कितनी बार बोला यार जल्दी दिया कर , अगर कल से जल्दी नहीं आया तो बंद कर देना। यह कहते हुए और समाचार पत्र हाथ में लेकर आगे बढ गए। छेदीलाल जैसे ही गली के मोड़ पर पहुंचे तभी तेज गति से आती स्कूल की वैन छेदीलाल के एकदम आगे आ गयी और छेदीलाल की जान सूख गयी और चिल्लाकर बोले " तुझे दिखता नहीं हॉर्न बजाकर मोड़ पर मुड़ना चाहिए।" वैन की खिड़की में से सिर निकालकर ड्राइवर ने बोला "मोड़ पर देखकर चलना चाहिए,पता नहीं कहाँ-कहाँ के गॉव से चले आते है।" वैन को आगे मोड़ते हुए और मोड़ पर ही गुटखे की पीक करते हुए आगे चला गया। इतने में छेदीलाल का सज्जनता का बाध टूटा और चिल्लाकर बोले " तू रूक इधर देखता हूँ।" और भी न जाने अपशब्द जो लिखा नहीं सकता। वैन के चालक ने पीछे अपनी सिर को मोड़ते हुए बोला "चल- चल बड़े आये तेरे जैसे हुर्र हुर्र,……एक हड्डी का है अभी फूक दूँगा तो उड़ जायेगा " और आगे चला गया। छेदीलाल ने अपनी घडी देखी और बुद्बुदाये "अभी ऑफिस का देर न होता तो बताता।" जैसे ही छेदीलाल आगे चलने के लिए ही मुड़े तभी बगल से एक बाइक सवार बड़ी तेजी से निकला और सड़क पर गिरी पानी की कुछ बूदे चश्मे और ऑफिस बैग पर उछल कर बैठ गयी। छेदीलाल ने अपना गुस्सा को शांत करते हुए जेब से रुमाल निकाली और उन बूदो को बड़े भारी मन से बिदा किया। तभी आगे वाली मंदिर के पास गौ माता दिखायी दी उनको प्रणाम किया। गौ माता ने अपना आशीर्वाद अपनी सींग दिखाकर और फुफकार कर दिया। मंदिर पर छेदीलाल ने एक रूपया निकाल कर चढ़ाया और जब भगवान से मन ही मन आँख बन्दकर प्रार्थना काना की कोशिश कर ही रहे थे तभी। पंडितजी ने उनकी तपस्या भंग करते हुए बोले "क्या छेदीलाल जी कब तक एक रूपया पर अटके रहेंगे। तभी तो भगवान आपकी सुन नहीं रहे है।" छेदीलाल का शांत गुस्सा उबल पड़ा "तुम लोग लुटेरे हो धर्म के नाम पर लूटते हो। भगवान ने क्या अपना दाम लगाया है।" पंडित जी ने कुछ बोला नहीं शायद छेदीलाल का मूड समझ लिया या फिर सुबह भक्तो के जमवाडो ने उन्हें शांत करा दिया। पास के रेड़ी वाले ने अपने दुकान पर आती बैल की मंशा को समझ कर उसे अपनी लाठी से डराया तो बैल मंदिर की तरफ दौड़ते हुए भागा। संयोग से अपने छेदीलाल अपने जुते की लेस बाध रहे थे। बैल को आता देख बिना लेस बाधे ही छेदीलाल मुख्य सड़क की तरफ दौड़े। और उनके पीछे-पीछे प्रसाद की आस में मंदिर के पास में बैठे बच्चे। वास्तव में बच्चे उन्हें बहुत पसंद करते थे क्योंकि छेदीलाल को मंदिर के बजाय उन बच्चो पैसा दान करना ज्यादा उचित लगता था। इसलिए बच्चे रोज छेदी चाचा का प्रसाद नहीं छोड़ते थे। बच्चो को पैसा देने के बाद छेदीलाल को अब सड़क पर करना था। क्योकि, सड़क को पार करके सिटी बस आती है। जैसे ही सड़क पर आये तो स्कूल पर बसो का जमावड़ा लगा था। उनके बीच से बचते हुए जैसे ही छेदीलाल सड़क के बीच पहुंचे तो सन्न रह गए। नाक को छूती हुयी एक बड़ी कार गाजे-बाजे के साथ बड़ी द्रुत गति से निकल गयी। छेदी चाचा को एक पल के लिए लगा की यमराज अपनी भैस पर आये और छेदीलाल को प्रणाम करके चले गए। जीवन का सारा लेखा-जोखा आँखो के सामने आ गया। जैसे लगा कि लिलावती और रिया अपना मासूम सा चेहरा लिए सामने खड़े है। तभी जोर से हॉर्न की आवाज सुनाई दी। "अरे क्या हो गया छेदीलाल जी बीच सड़क में कहाँ खोये हुए है " पड़ोस की बिल्डिंग के श्यामलाल जी थे अपनी छोटी कर में। "नहीं कुछ नहीं बस ऐसे ही, क्षमा करे " यह कहते हुए छेदीलाल जी आगे बढ गए। जैसे ही सड़क के बीच में पहुंचे तभी धूल का एक बड़ा बादल छेदीलाल से आ टकराया। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे की हमारे पुराने फिल्मो का हीरो बादलो के बीच निकलकर अपनी हीरोइन से मिलने आ रहा है। सारे भावनाओ की ऐसी की तैसी अपने छेदीलाल जी खलनायक बनकर सफाई कर्मियों पर चिल्लाने लगे। "देखकर झाड़ू नहीं लगा सकता, जब ऑफिस का टाइम होता है तभी तेरा भी टाइम होता है। धुल धूसरित कर दिया।" अपने ढके चेहरे से ही थोड़ी सी कड़वी स्वर में सफाईकर्मी ने बोली "इतना ही नाजुक है तो कार से क्यों नहीं चलता। जैसे तेरे ऑफिस का टाइम हो रहा है वैसे मैं भी अपनी ड्यूटी कर रही हूँ।" छेदीलाल ने न उलझते हुए आगे बस स्टैंड पर जाकर खड़े हो गए। हमेशा की तरह लोग बस स्टैंड के पहले खड़े बस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। कुछ लोग समाचार पत्र पढ़ रहे थे तो कुछ मोबाइल फ़ोन पर बात करने में लगे थे, कुछ मोबाइल में गेम खेलने में लगे थे और बकि बचे देश-विदेश की राजनीति की चर्चा में लगे थे। इन सबमे एक छोटा समूह ऐसा भी था जो अपने ऑफिस और बॉस की बुराई में लगे थे। गुटखे वाले के खोखे से सिगरेट,गुटखा और पान की बिक्री तेजी से हो रही थी। इन सबको झेलकर बस स्टैंड का कोना लाल-लाल हो रखा था। जबकि बस स्टैंड के उपर मोदी की सफाई अभियान का बैनर चमक रहा था। सिगरेट के धुएं से बचते-बचते हमारे छेदीलाल बस स्टैंड से करीब ५ कदम दूर जा चुके थे। मन ही मन इन सब हरकतो से कूढे जा रहे थे। तभी बड़ी तेजी से ब्रेक लगाती हुयी सिटी बस आ धमकी। लोगो का रेलम-रेल शुरू हो गया। कुछ लोग, बस चालक और सहचालक के मना करने के बावजूद आगे वाली दरवाजे से भी चढ़ने की कोशिश करने लगे थे। हमारे छेदीलाल जी बस में चढ़ने में माहिर थे। बस के आने से पहले से ही अपना चश्मा अपनी जेब में रख लिय था और जैसे ही बस की ब्रेक लगती उसके पहले ही कूदकर बस में चढ़ गए थे। अंदर तो सीट मिलने से रही इसलिए एकदम कोने में जाकर खड़े हो गए। बस में चढ़ना तो नए लोगो के लिए एक चैलेंज है। उसपर से आप अगर एक महिला है तो और भी मुश्किल। बस में चढ़ते समय जो थोड़ी बहुत मानवता है लोग थोड़ी देर के लिए भूल जाते है। बस एक ही लक्ष्य रहता है बस में चढ़ना। उस समय एक और चैलेंज रहता है कि बगल से गुजरने वाले बाइकर और साइकिल वाले से बचने का भी। जिसको बस के अंदर बैठने की सीट मिल जाती है वो अपने को बहुत ही भाग्यवान समझता है। और वो सीट पर ऐसे बैठता है कि जैसे वो बस उसके बाप की है। जिनको बस के अंदर खड़े होने को मिलता है वो भी अपने को किसी से कम नहीं समझते है। बचे जो बस के बाहर लटक रहे होते है उनकी भी कॉलर उची रहती है। कुछ लोग तो जानबूझ कर लाइन में सबसे पीछे रहते है कि उनको लटकने को मिले। एक साथ दो काम, अपने गंतव्य पर पहुचने के साथ-साथ मुफ्त का एडवेंचर हो जाता है। और हाँ कभी-कभी टिकट के पैसे भी बच जाते है।
