आज कल मोदी जी की हर जगह चर्चा हो रही है। रोहित शर्मा भी दो शतक बना दिए क्रिकेट में। कुछ दिन पहले भारत के वैज्ञानिको की बड़ी चर्चा हो रही थी। अरे वही मगल ग्रह पर पहुचने वाली बात पर। मैरी कॉम ने स्वर्ण पदक जीता तो बड़ी चर्चा हुई। यूरोप का एक उपग्रह एक पुछ्लतारा पर पहुंच गया उसकी भी चर्चा होगी।
और आजकल तो भारत देश में दो बड़े नामो की चर्चा है। किसी के लिए बड़ी सी मूर्ति बन रही है तो किसी के लिए बड़ा जलसा हो रहा है।
ये तो हो गयी आजकल की बात। अगर हम थोड़ा पीछे जाये अरे अपने इतिहास की किताबो की तरफ या फिर साहित्य के किताबो की तरफ वहां पर भी बड़े नामो की चर्चा होती है। अपने माता-पिता या फिर दादा-दादी ,नाना-नानी की कहानियो की भी याद करे तो उनमे भी हमेशा सफल आदमी या महिला की चर्चा होती थी। हमारे अध्यापक भी हमेशा हमको सफल आदमी का नाम लेकर हमको प्रोत्साहन देते रहे है।
अब मेरी बात यही से शुरू होती है। अगर हम जिंदगी में सफल नहीं हुए तो क्या कोई हमारा जिक्र भी नहीं करेगा। हा पता है सफल आदमी की कहानी दूसरो के लिए प्रेरणा का काम करती है। समाज में सकारात्मकता लाती है। उसको सब सुनना चाहते है। सब पढ़ना चाहते है। इसलिए टेलीविजन वाले उसी को दिखाते है। समाचार पत्र और पत्रिका वाले उसी को छापते है। फिल्म वाले उन्ही पर फिल्म बनाते है। आखिर उनको भी तो अपना व्यापार करना है।
बात आकर यही फसती है। इसलिए मैंने सोचा की क्यों ना मै कुछ करू। कुछ अपनी टूटी-फूटी भाषा में कुछ लिखू। आशा करता हूँ आप भी कुछ कीमती समय इस असफल की कहानी पड़ने में देंगे।
कहानी ऐसे शुरू होती है कि, जन्म लिया एक छोटे से गॉव में। एक ऐसे कलयुग के युग में जिसमे सब कुछ बड़े आराम से चल रहा था। धीरे-धीरे गॉव की मिट्टी में खेलते-खेलते बड़ा होने लगा। तो घर वालो के सारे बच्चो के साथ पाठशाला जाने लगा। तो मैं पढने लगा। मेरे माता-पिता को लगा की बालक पढ़ाई में अव्वल आ रहा तो क्यों ना हम शहर चला जाये जिससे हमारे बच्चे को अच्छी शिक्षा मिले। फिर क्या आ गए अपनी सीधी-साधी जिंदगी को छोड़कर भागमभाग में। अब उस ज़माने में शहर भी आजकल के शहर जैसे नहीं थे। सब कुछ आराम से ही होता था। लोगों के छोटे-छोटे सपने होते थे और सब उन्ही को पूरा करने में लगे रहते थे। किसी को भी तुर्मखा नहीं बनना था। टेलीविज़न, फ्रिज , स्कूटर, पंचायत और समय मिला तो नौकरी में लगे रहते थे। देश विदेश की बाते समोसे वाले की दूकान पर चाय पीते -पीते हो जाया करती थी। मैं भी इसी समाज का हिस्सा था तो ये सब चीजे मेरे अंदर भी रची बसी थी। गॉव से शहर आने में मेरे अंदर इतना बदलाव की पाठशाला से स्कूल जाने लगा। गिल्ली-डंडा की जगह क्रिकेट खेलने लगा। और उस समय गाव से शहर में मुझे इतना ही अंतर लगता था। किताबे वही ,अध्यापक भी उसी तरह के और पढ़ाई भी वही। पढता गया अव्वल आता गया और साथ में बड़ा होता गया। इस अव्वल ने मेरे माँ-बाप को सपने देखने को मजबूर कर दिया। और मेरे सफल होने का सपना देखने लगे। फिर क्या जैसे मैं बड़ा होने लगा सपने बड़ा होने लगा। उस जमाने और मेरे शहर में सफल होने की मंजिल का दायरा काफी सीमीत था। कुछ लोग बड़ा ठेकेदार। कुछ लोग नेता बनाने का सपना देखते थे। जो थोड़े पड़े लिखे थे। वो सोचते थे कि हमारा बच्चा बढ़ा होकर सरकारी बाबू बन जाये। जो थोड़ा और सोचते थे। वो सोचते थे कि मेरे बच्चे कि एक अफसर वाली नौकरी लग जाए। पर ये लोग तो बाकि सारे शहर के बच्चो के माँ बाप थे, मेरे माँ- बाप तो अलग ही सोचते थे। क्योंकी मेरे माँ- बाप थे। उनका सपना था की मैं बढ़ा होकर सरकारी विभाग में इंजीनियर बनू या फिर लाल बत्ती वाले गाड़ी में बैठने वाला अधिकारी बनू। फिर शुरू हो गयी जद्दोजहद। इंजीनियर बनने कि, क्यों लाल बत्ती में बैठने की शुरुवात तो वही से होती है। ऐसी सोच इसलिए थी अगर लाल बत्ती में नहीं बैठ पाया तो कम से लाल बत्ती खरीदने का पैसा कमाने का दम तो रहेगा। चल पड़े बड़े शहर को आगे पड़ने और जिंदगी में सफल होने के लिए। जैसा आपको मैंने शुरू में बताया था तो मैं वैसा गाव वाला। बढे शहर की रंगत समझने में २-३ साल गुजर गए। फिर लगा की हम कभी सफल नहीं हो सकते। मेरे घर वालो को भी लगाने लगा की हाँ मुश्किल है। तब लगाने लगा की एक बार इंजीनियर बन जय तो बस सफल हो जायेगे। चलो लाल बत्ती न सही। अचानक में भगवान को तरस आया और किस्मत ने इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला दिला दिया। तब मुझे लगा कि अब मैं सफल हो गया। बहुत खुश था। पर जैसे ही कॉलेज गया तो देखा कि मेरे जैसे बहुत लोग है जो सफल है। उसमे मैं तो खो गया। मेरी सफलता तो धरी की धरी रह गयी। तब लगा ये मंजिल नहीं है। मंजिल को कहीं और है। सफल होने के लिए तो कुछ और करना होगा। अपने गॉव और शहर से बाहर कुछ और सोचना होगा। ये सोचने और समझने में समय लग गया। जब समझ में आया तब लगा की लाल बत्ती की गाड़ी में तो नहीं बैठ सकता। इतना दम नहीं है। उस समय मेरे विद्यालय में प्रबंधन शास्त्र की लहर थी। तो मुझे लगा की चलो लाल बत्ती न सही प्रबंधन शास्त्र पढ़कर मैं सफल हो जाउगा। बस फिर मंजिल निर्धारित होने के बाद जुट गया। जैसे खेत में बीज डालने के बाद गॉव में किसान जुट जाता है उसकी सेवा में और इस आस मे की एक दिन अच्छी फसल होगी। अब बीज तो हमने कपास का ले लिया यह सोच कर की इसकी फसल को बेचकर हम अच्छा पैसा कमाएगे। पर मेरे खेत की मिट्टी उसके लिए है की नहीं सोच ही नहीं। पर कोई बात नहीं मिट्टी को वैसा बनायेगे ठान लिया और निश्चय कर लिया की हम होगे कामयाब। निकल पड़े हाथ में मशाल लेकर अंग्रेजी भाषा पर विजय पाने। क्योंकी ये भाषा ही सबसे बड़ी बाधक नजर मेरी सफलता में। कोशिश पूरी की या आधी जब सफल हुए ही नहीं तो सब बेकार। गेहूं वाले खेत में कपास उगाना बहुत मुश्किल लगा। पीछे हट गया। इस चक्कर मे लगा की कहीं हाथ से लग रही नौकरी भी न चली जाय। गॉव की एक कहावत याद आई कि चौबे बनने गए छब्बे पर दुबे बनकर लौटे। डर गया। जो नौकरी लगी तुरंत उसको कसकर पकड़ लिया। फिर लगने लगा की अब मैं सफल नहीं हो सकता। कुछ दिन के बाद फिर से सफल होने का भूत धीरे-धीरे मेरे ऊपर सवार होने लगा। उस नौकरी को छोड़कर दूसरी कर ली। लगा की यहाँ से सफलता आएगी। पर वो भी ज्यादा दिन नहीं चला। दूसरी नौकरी की। वहां भी मन नहीं लगा। इसी तरह सिलसिला चलता रहा। ५-६ नौकरी हो गयी। फिर भी सफलता नहीं मिली। अब तो बड़ी समस्या हो गयी। सफलता कहाँ मिलेगी ? अब तो शादी भी गयी थी और एक प्यारी बच्ची भी आ गयी। खुद बाप बन गया। चिंता और हो गयी। खुद को सफलता मिली नहीं ऊपर से बच्ची के सफलता के बारे में भी सोचना है। कुछ जल्दी करना होगा। ऐसा ख्याल आने लगा गया। करू क्या ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इन्ही सब उधेड़ बुन में था तभी एक विचार आया। मन नश्वर चीजो की तरफ भागने लगा। मैं कभी दर्शन शास्त्र की तरफ भगता तो कभी समाज शास्त्र की तरफ। पता नहीं कहाँ-कहाँ जाता। अगर कोई व्यक्ति सफल नहीं है तो क्या उसको जीने का कोई हक़ नहीं। क्या उसको कोई नहीं पूछेगा ? इस तरह के अच्छे या बुरे ख्याल आने लगे। कभी-कभी लगता की नहीं मुझे नहीं होना है सफल। जैसा जीवन चल रहा है चले दो। फिर दिमाक में आता वो बचपन का अपना और अपने माँ- बाप का सपना। नहीं यार ऐसा नहीं कर सकते। फिर करे तो क्या करे। कभी-कभी पूर्वजो का ज्ञान याद आता की जितना है उसमे ही खुश रहने की कोशिश करना चाहिए। पर क्या खुश रहना और सफल होना दोनों एक चीज है ? एक नया सवाल खड़ा हो गया। इसके लिए मैं अपने जीवन को टटोलना शुरु किया। पता चला की जीवन में ख़ुशी तो है। पत्नी खुश है। बच्ची खुश है। और मेरा जीवन इन्ही के चारोतरफ घूमता है। तो इसका मतलब मैं भी खुश हूँ। मतलब ख़ुशी और सफलता अलग- अलग चीज है। मैं खुश हूँ पर सफल नहीं हूँ। पर मैं सफल क्यों नहीं हूँ ? उससे बड़ा सवाल ये सफलता क्या होती और कब आती है ? सफलता जीवन में कब मिलती है। मोदी सफल है। मैरी कॉम सफल है। सचिन सफल है। सचिन बंसल सफल है। चेतन भगत सफल है। इत्यादि लोग जिनको मैं सफल मानता हूँ,इन सब में समानता क्या है ? तब समझ में आया। ये सब अपना काम या बोल सकते है इनके अंदर जो भी गुण है उसके प्रति ईमानदार है। उसको अपने जीवन में स्थान देते है। अपने अंदर के हुनर को बड़े मन ,लगन शिद्द्त से तरासा है। दूसरो की सफलता और असफलता से पर के अपने लक्ष्य पर ध्यान देते है। और बहुत कुछ जो शायद मैं भी ऐसा करना शुरू करू तब और समझ में आना शुरू होगा। कहीं ये अध्यात्म तो नहीं है। पर नहीं ये तो जीवन का सच है। जो हर एक मानव को समझना चाहिए। ऐसे मैं कोई नयी बात नहीं कहीं है। ये बाते सबको पता है। वास्तव में मैंने सफलता को प्रसिद्धि से जोड़ लिया था, इसलिए मैं भटक रहा था। प्रसिद्धि और सफलता है दो अलग चीज है। इस खोज के बाद पता चला। और एक बात ये भी समझ में आई की अगर आप सफल है तो तभी आपको शारश्वत प्रसिद्धि मिलेगी। आप को अपने नजरो में पहले सफल होना होगा। और फिर ये सफलता आपको दूसरो के साथ बाटना पड़ेगा। जितना बटेंगे उठाना ही बढ़ेगा। विद्या की तरह। जब आप ये कर ले जायेगे तो अपने आप लोग आप की चर्चा करने लगेंगे। फिर आपकी कहानी भी कोई और लिखेगा। मेरी तरह नहीं कि खुद लिखना पड़ रहा है। आगे और कुछ ज्यादा नहीं लिख सकता क्योंकी पहले मैं खुद इसपे अमल कर लू। नही तो .……हा हा हा। इसका एक उदाहरण जो अभी मुझे समझ में आ रहा है वो है कैलाश सत्यार्थी जी। नोबेल पुरस्कार विजेता।